जब प्रकृति उत्सव मनाती है पलाश के फूलों से और दुनियां सिंदूरी हो जाती है तब होली का त्योहार आता है, और फिर सबमें एक दूसरे को रंगीन करने की होड़ सी लग जाती है. बचपन में हमनें भी खूब होली खेली है, पर सच कहें तो होली का हुड़दंग कभी पसंद नहीं आया.. फिर धीरे धीरे हमारी होली में सादगी समाती गयी, रंगों में रासायनिक मिलावटें और उनके दुष्प्रभावों नें फिर धीरे धीरे हमें इनका दुष्मन बना दिया..
इस बार भी होली की पूर्वसंध्या पर जब दुनियां रंगीन होनें की तैयारीयों में जुटी थी, हम अपनें घर की छत पर डूबते हुए सूरज को निहार रहे थे..
जैसे जैसे पेड़ो के पीछे से लुकाछिपी खेलता हुआ सूरज नीचे आता जा रहा था, उसकी खूबसूरती बढ़ती जा रही थी..
आसमान सिंदूरी हो गया था, जैसे चारों ओर पलाश के फूल खिलें हों; या जैसे सूरज अभी ही हमसे होली खेलनें को उतावला हो..
मैनें सारे के सारे रंग अपनें कैमरे में भर लिए थे.. और फिर जब वो जानें लगा तो जाते जाते हम उससे बस इतना ही कह सके:
"जब जब मेरे घर आना;
तुम फूल पलाश के ले आना.."
इस बार भी होली की पूर्वसंध्या पर जब दुनियां रंगीन होनें की तैयारीयों में जुटी थी, हम अपनें घर की छत पर डूबते हुए सूरज को निहार रहे थे..
जैसे जैसे पेड़ो के पीछे से लुकाछिपी खेलता हुआ सूरज नीचे आता जा रहा था, उसकी खूबसूरती बढ़ती जा रही थी..
आसमान सिंदूरी हो गया था, जैसे चारों ओर पलाश के फूल खिलें हों; या जैसे सूरज अभी ही हमसे होली खेलनें को उतावला हो..
मैनें सारे के सारे रंग अपनें कैमरे में भर लिए थे.. और फिर जब वो जानें लगा तो जाते जाते हम उससे बस इतना ही कह सके:
"जब जब मेरे घर आना;
तुम फूल पलाश के ले आना.."