दूसरे दिन मेरी इच्छा समुद्रतट पर सुर्योदय को अपनें कैमरे में कैद करनें की थी, पर मौसम नें हमारी इच्छा पर पानी फेर दिया.. हल्की बरसात हो रही थी और आसमान बादलों से पूरी तरह ढ़का था, ऐसे में सुर्यदेव के दर्शन असंभव थे.. होटल के कमरे में बैठे-बैठे हम आज का प्रोगाम तय कर रहे थे, इतने में एक 'टूर एण्ड ट्रेवल' वाले नें हमारे दरवाजे पर दस्तक दी, हमनें उसके द्वारा उपलब्ध करायी जा रही सारी सुविधाओं पर विचार किया और फिर कोणार्क और दूसरे दिन सतपाड़ा के लिए हमारी बात तय हो गयी, और फिर करीब आधे घंटे में हमारी कार भी होटल के दरवाजे पर खड़ी थी; आज कोणार्क जानें का कार्यक्रम था..
करीब चालीस मिनट की ड्राईव के बाद हम कोणार्क में थे, बारिश अब लगभग थम चुकी थी; रातभर की बरसात के बाद कोणार्क का मंदिर नहा-धोकर हमारी प्रतिक्षा कर रहा था..
मंदिर परिसर में घुसते ही मैनें अपना कैमरा 'ऑन' कर लिया था, फिर लगभग दो-तीन घंटे लगे हमें पूरा मंदिर देखनें में और इस दौरान मुझे अपनें कैमरे को 'ऑन' ही रखना पड़ा.. कोणार्क का सुर्यमंदिर अपनी विशालता, मूर्तिकला तथा वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है, ये मंदिर अब काफी जर्जर हो चला है पर पत्थरों पर की गयी ऐसी महीन नक्काशी देखनें लायक है..
मंदिर के कई उंची जगहों पर चढ़नें, तथा कई कलाकृतियों को छूनें तक की इजाजत नहीं है.. इस मंदिर की कल्पना सुर्यदेव के रथ के रुप में की गयी है, जिसमें चौबीस पहिए लगे हैं और जिसे सात घोड़े खींच रहे हैं..
कई नक्काशियां, खासकर, पत्थरों से बने हाथियों
को मारते दो बड़े सिंह आपको मंदिर निर्माण के उस काल में ले जाकर आश्चर्य
और भावुकता से भर देते हैं..
सुर्यमंदिर के पीछे छायादेवी का मंदिर है और उसके पीछे ईंट का मंदिर..
चार-पांच चक्कर लगाये बिना आप इस पूरे मंदिर को अच्छी तरह से नहीं देख सकते..
मंदिर परिसर में 'भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग' द्वारा बनाया गया पार्क भी सराहनीय है..
मंदिर के चारों ओर एक 'पाथवे' बनाया गया है जो कुछ खास तो नहीं है पर अगर आप इस भव्य मंदिर को अलग अलग कोणों से देखनें के इच्छुक हैं या फिर फोटोग्राफी का शौक रखते है, तो ये 'पाथवे' काफी उपयोगी सिद्ध हो सकता है..
मंदिर से मुख्य मार्ग तक की सड़क दोनों ओर दुकानों से भरी है, यहां ओडिसा के खास स्क्रिपचर्स, मंदिरों की प्रतिकृति और हैंडीक्राफट्स की दुकानें हैं, पुरी या कोणार्क से जुड़ी वस्तुएं लेनें के ये अच्छे स्त्रोत साबित हो सकते हैं..
यहां से 'चंद्रभागा बीच' थोड़ी ही दूरी पर है, जहां पर्यटकों का जमावड़ा लगा रहता है, कोणार्क से पुरी का रास्ता काफी रमणीक है, लगभग पूरे रास्ते एक ओर जहां समुद्र है तो दूसरी और 'बालूखण्ड वाइल्डलाईफ सेंक्चुरी', बहुतायत में काजू के पेड़ भी आपको इस रास्ते के किनारे देखनें को मिलेंगे.. पुरी से कोणार्क तक का रास्ता 'पुरी कोणार्क मरीन ड्राइव' के नाम से जाना जाता है.. इस रास्ते में कई मंदिर भी हैं जिसके पुजारियों द्वारा रास्ते में बार बार आपकी कार को रोक दिया जाता है, और मंदिर के नाम पर बीस-पचास रुपए लेनें के बाद ही छोड़ा जाता है..
देर शाम हमारा स्वर्गद्वार जाना हुआ, यहां का समुद्रतट काफी लोकप्रिय है, जिसे 'गोल्डन बीच' कहा जाता है.. बीच पर कुछ देर टहलनें के पश्चात् हम किनारे सुस्ताने लगे, रात होते होते यह तट एक छोटे मार्केट का रुप ले लेता है जो देर रात तक गुलजार रहता है; यहां पुरी से जुड़ी वस्तुएं काफी सस्ते में खरीदी जा सकती हैं..
अब पुरी यात्रा की तीसरी कड़ी में हम सतपाड़ा जानें वाले हैं जहां का 'चिलका लेक' विश्व प्रसिद्ध है.. पुरी यात्रा की ये श्रृंखला आपको कैसी लग रही है? ये आप हमें कमेंट कर बता सकते हैं या आप हमें drishti@suhano.in पर इ-मेल भी कर सकते हैं..
Sunday, April 28, 2013
Saturday, April 27, 2013
पुरी यात्रा #01
यूँ तो पुरी जानें के लिए ये अनूकूल मौसम नहीं कहा जा सकता, परन्तु अप्रैल की अठ्ठारह को शाम चार बजे हम हटिया से पुरी जानें वाली 'तपस्विनी एक्सप्रेस' में बैठे थे.. हमारा तीन दिनों का कार्यक्रम पुरी भ्रमण का था.. मैं 'कोणार्क के सुर्य मंदिर' को देखनें को उत्साहित था, साथ ही 'समुद्रतट' और 'चिलका झील' देखनें को रोमांचित भी था..
तय समय पर ट्रेन रवाना हुई.. हम शुभचिंतको की शुभकामनाओं को अपनें-अपनें मोबाइल में समेटते हुए आगे बढ़ रहे थे, नए-नए स्टेशनों को देखते हुए और आपसी बातचीत में समय भी ट्रेन के साथ-साथ द्रुत गति से भाग रहा था.. यूं तो ट्रेन पर खानें-पीनें की चीजें लेनें से हम अक्सर परहेज करते हैं पर 'बानो स्टेशन' में ताजे पपीते देख कर हम खुद को रोक नहीं सके, और सचमुच पपीते काफी स्वादिष्ट थे.. रात में घर से तैयार 'डिनर' हमारा इंतजार कर रहा था, जिसके बाद हम सब अपनें-अपनें बर्थ पर पसरनें की तैयारी करनें लगे.. अब तक रात के दस बजनें वाले थे और हम ओड़िसा में प्रवेश कर चुके थे..रात भर की यात्रा के बाद सुबह करीब आठ बजे यानी कि लगभग एक घंटे लेट हम पुरी स्टेशन पर थे.. पुरी का मौसम अपेक्षा के अनूरुप गर्म था पर आसमान के हल्के हल्के बादल हमें दिलाशा भी दे रहे थे..
ट्रेन से उतरते ही ओटोरिक्शा वालों नें हमारा पीछा करना शुरु कर दिया था, पुरी आए हुए अनुभवी लोगों से हमें पहले ही हिदायतें मिल चुकी थी; सो हम सतर्क थे, पर हमारी सतर्कता तब धरी की धरी रह गयी जब 'ओटोवाले' ने हमें स्वर्गद्वार की जगह चक्र-तीरथ रोड़ पर छोड़ दिया (ये हमें बाद में पता चला).. खैर, यहां का समुद्रतट स्वर्गद्वार जितना सुन्दर तो नहीं है पर उससे कम भी नहीं है, इसे 'फोरेन बीच' कहा जाता है,
और यहां बिलकुल समुद्रतटके किनारे ही हमें बड़े सस्ते में होटल में कमरा भी मिल गया; और कमरा भी शानदार था.. थोड़ी देर सुस्तानें के बाद हम बीच पर थे.. पहली बार का समुद्र दर्शन रोमांचक था, पर इस वक्त तेज धूप थी और ज्यादा देर रुकना संभव नहीं था; सो हम किनारे नारीयल के पत्तों से बने एक मचान की छांव में बैठ कर नारीयलपानी पीनें लगे.. नारीयल यहां बहुतायत में पाया जाता है पर इसका मूल्य 'रांची' के बराबर ही था.. वहां से हम एक अच्छे 'रेस्टोरंट' की खोज में निकल पड़े, यहां के रेस्टोरंट्स हमारी फरमाइशें पूरी नहीं कर पा रहे थे क्यूंकि हमारी कुछ विशिष्ट फरमाइशें थीं जैसे: हमें शाकाहारी भोजन चाहिए था, पापा तेल से बनी वस्तुएं नहीं लेते, तो उन्हें घी से बनीं सब्जियां चाहिए थीं और साथ में सलाद हमें अनिवार्य रुप से चाहिए था.. काफी खोजबीन के बाद हमें एक भोजनालय मिला जो हमारी फरमाइशें पूरी कर सकता था.. वापस होटल आनें के बाद, फिर; शाम को मुसलाधार बरसात नें हमें कहीं जानें नहीं दिया..
कैसा रहा पुरी में हमारा दूसरा दिन, ये जाननें के लिए आपको थोड़ा सा इंतजार करना होगा, और अभी तक ठीक से फोटोग्राफी भी तो शुरु नहीं हुई है.. इस श्रृंखला की दूसरी कड़ी में हम चलेंगे कोणार्क के सुर्यमंदिर की सैर को..
तय समय पर ट्रेन रवाना हुई.. हम शुभचिंतको की शुभकामनाओं को अपनें-अपनें मोबाइल में समेटते हुए आगे बढ़ रहे थे, नए-नए स्टेशनों को देखते हुए और आपसी बातचीत में समय भी ट्रेन के साथ-साथ द्रुत गति से भाग रहा था.. यूं तो ट्रेन पर खानें-पीनें की चीजें लेनें से हम अक्सर परहेज करते हैं पर 'बानो स्टेशन' में ताजे पपीते देख कर हम खुद को रोक नहीं सके, और सचमुच पपीते काफी स्वादिष्ट थे.. रात में घर से तैयार 'डिनर' हमारा इंतजार कर रहा था, जिसके बाद हम सब अपनें-अपनें बर्थ पर पसरनें की तैयारी करनें लगे.. अब तक रात के दस बजनें वाले थे और हम ओड़िसा में प्रवेश कर चुके थे..रात भर की यात्रा के बाद सुबह करीब आठ बजे यानी कि लगभग एक घंटे लेट हम पुरी स्टेशन पर थे.. पुरी का मौसम अपेक्षा के अनूरुप गर्म था पर आसमान के हल्के हल्के बादल हमें दिलाशा भी दे रहे थे..
ट्रेन से उतरते ही ओटोरिक्शा वालों नें हमारा पीछा करना शुरु कर दिया था, पुरी आए हुए अनुभवी लोगों से हमें पहले ही हिदायतें मिल चुकी थी; सो हम सतर्क थे, पर हमारी सतर्कता तब धरी की धरी रह गयी जब 'ओटोवाले' ने हमें स्वर्गद्वार की जगह चक्र-तीरथ रोड़ पर छोड़ दिया (ये हमें बाद में पता चला).. खैर, यहां का समुद्रतट स्वर्गद्वार जितना सुन्दर तो नहीं है पर उससे कम भी नहीं है, इसे 'फोरेन बीच' कहा जाता है,
और यहां बिलकुल समुद्रतटके किनारे ही हमें बड़े सस्ते में होटल में कमरा भी मिल गया; और कमरा भी शानदार था.. थोड़ी देर सुस्तानें के बाद हम बीच पर थे.. पहली बार का समुद्र दर्शन रोमांचक था, पर इस वक्त तेज धूप थी और ज्यादा देर रुकना संभव नहीं था; सो हम किनारे नारीयल के पत्तों से बने एक मचान की छांव में बैठ कर नारीयलपानी पीनें लगे.. नारीयल यहां बहुतायत में पाया जाता है पर इसका मूल्य 'रांची' के बराबर ही था.. वहां से हम एक अच्छे 'रेस्टोरंट' की खोज में निकल पड़े, यहां के रेस्टोरंट्स हमारी फरमाइशें पूरी नहीं कर पा रहे थे क्यूंकि हमारी कुछ विशिष्ट फरमाइशें थीं जैसे: हमें शाकाहारी भोजन चाहिए था, पापा तेल से बनी वस्तुएं नहीं लेते, तो उन्हें घी से बनीं सब्जियां चाहिए थीं और साथ में सलाद हमें अनिवार्य रुप से चाहिए था.. काफी खोजबीन के बाद हमें एक भोजनालय मिला जो हमारी फरमाइशें पूरी कर सकता था.. वापस होटल आनें के बाद, फिर; शाम को मुसलाधार बरसात नें हमें कहीं जानें नहीं दिया..
कैसा रहा पुरी में हमारा दूसरा दिन, ये जाननें के लिए आपको थोड़ा सा इंतजार करना होगा, और अभी तक ठीक से फोटोग्राफी भी तो शुरु नहीं हुई है.. इस श्रृंखला की दूसरी कड़ी में हम चलेंगे कोणार्क के सुर्यमंदिर की सैर को..
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